सच्चा प्रेम क्या है ?


भगवान श्रीकृष्ण ने *भगवद्गीता*और **भागवत धर्म** में प्रेम (भक्ति) का सार समझाया है। उनके अनुसार, **सच्चा प्रेम निःस्वार्थ, अनन्य और पूर्ण समर्पण है**। यहाँ कुछ प्रमुख बिंदु दिए गए हैं:  


1. **निष्काम भक्ति (बिना स्वार्थ के प्रेम)**  

   - श्रीकृष्ण गीता (9.27) में कहते हैं:  

     *"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।  

     यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥"*  

     (हे अर्जुन! तू जो कुछ करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है, जो तपस्या करता है—सब कुछ मुझे अर्पण कर दे।")  

   - सच्चा प्रेम वह है जहाँ कोई इच्छा या फल की आशा नहीं होती, बल्कि सिर्फ ईश्वर को प्रसन्न करने की भावना होती है।  


2. **अनन्य भक्ति (एकमात्र प्रेम)**  

   - श्रीकृष्ण ने **भागवत पुराण** में कहा:  

     *"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।"* (गीता 18.66)  

     ("सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ जाओ।")  

   - प्रेम का अर्थ है—बिना किसी शर्त के, बिना किसी दूसरे आश्रय के, पूर्णतः कृष्ण को अपना सब कुछ मान लेना।  


3. **प्रेम ही योग (भक्ति योग)**  

   - श्रीकृष्ण के लिए प्रेम ही सर्वोच्च योग है। वे **भक्ति को ज्ञान और कर्म से ऊपर** मानते हैं (गीता 6.47):  

     *"योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।  

     श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥"*  

     ("सभी योगियों में से जो भक्त मुझमें पूर्ण श्रद्धा से लीन रहता है, वह मुझे सबसे प्रिय है।")  


4. **सखा-भाव और प्रेम की लीला**  

   - श्रीकृष्ण ने **वृन्दावन की लीलाओं** में दिखाया कि प्रेम **मुक्त, निश्छल और आनंदमय** होता है। गोपियों का प्रेम, उनका **"विरह"** और **"मिलन"**—यह सब शुद्ध प्रेम का उदाहरण है।  


5. **प्रेम = परमात्मा से जुड़ाव**  

   - कृष्ण कहते हैं—**"मैं प्रेम हूँ"** (गीता 10.20)। जो भक्त प्यार, करुणा और भक्ति से परिपूर्ण है, वही वास्तव में कृष्ण को प्राप्त करता है।  


**निष्कर्ष:**  

श्रीकृष्ण के अनुसार, **प्रेम = शुद्ध भक्ति + पूर्ण समर्पण + अनन्य विश्वास**। यह प्रेम ही मोक्ष का मार्ग है और जीवन का परम लक्ष्य।  


> *"यहाँ तक कि एक पत्ता भी मेरी इच्छा के बिना नहीं हिलता। जो मुझे प्यार करता है, मैं उसे कभी नहीं छोड़ता।"* — श्रीकृष्ण

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